Home » रोहित सरदाना के जाने के बाद दुख के साथ सवाल भी, सरकार से सिस्टम तक-हाशिए पर क्यों है पत्रकार
रोहित सरदाना के जाने के बाद दुख के साथ सवाल भी, सरकार से सिस्टम तक-हाशिए पर क्यों है पत्रकार

रोहित सरदाना के जाने के बाद दुख के साथ सवाल भी, सरकार से सिस्टम तक-हाशिए पर क्यों है पत्रकार

by Sneha Shukla

<पी शैली ="पाठ-संरेखित करें: औचित्य;"> रोहित तुम जैसे गए तो ऐसा लगा कि शरीर निरप्राण हो गया है। छाती फटने को है और दिमाग जैसे सुन्न। न कुछ कह पा रहा, न ही कुछ लिखने की भी हिम्मत हो रही है। जानता हूं मृत्यु अटल है, अकाट्य है और प्रकृति में चलने वाला अनवरत क्रम है लेकिन अगर उसका आगमन असमय या अकाल हो तो दुख असहनीय हो जाता है। वही मन: स्थिति खिन्न कर रही है। लेकिन ‘ताल ठोककर’ अपनी बात कहने वाला वो पत्रकार जो किसी दंगल से नहीं डरा, उसकी मौत की ‘दस्तक’ हुकूमत को सुनाई देना ज़रूरी है।

महामारी में जैसे मौत का नर्तन चौतरफा है। संवेदनाएं ज़ख़्मी हैं, पूरी तरह से सरकारी व्यवस्था एक ऐसे फोड़े की तरह है, जिससे लगातार मवाद रिस रही है। मृत्यु के ऐसे नंगनाच से आँखों का पानी भी सूखने लगा है और आत्मा तक कराह रही है। कभी आक्सीजन तो कभी ड्रग्स की कमी तो कभी आईसीयू और बेड न मिलने से तड़प-तड़प कर ब्रेते लोग। अपनों को सामने प्राण छोड़ते देखना और संसाधनों का अभाव, व्यवस्था के कुप्रबंधन और असंवेदनशीलता के आगे खुद को बेबस चेहरा और निराशा और अवसाद से सनी उनकी पथराई प्रतिक्रिया देखने को सब अभिशप्त हैं। इस वेदना से लगभग हर परिवार या ख़ानदान गुजर रहा है।

उसी कड़ी में रोहित तुम्हारा जाना भी किसी भी सिस्टम के लिए सिर्फ एक आंकड़ा हो सकता है। सरकारों के लिए तो रोहित आप भी सिर्फ वोटरवादी से हटने वाले बस एक नाम हो जाओगे। लेकिन आपका परिवार जो पत्नी और दो बेटियों या ख़ानदान के रिश्तों तक ही सीमित नहीं था, आपकी निधन की सूचना उसकी सहनशक्ति को खतरनाक कर रही है। हमने एक अच्छे पत्रकार ही नहीं बल्कि एक सरल और सहज व्यक्तित्व के धनी को खो दिया है।

यह सच है कि आपको मेरा संबध न पुराना था। न ही हमने बहुत समय बिताया। पेशेवर साथी होने के नाते एक दूसरे को जाना और फिर एक दूसरे से गिनती की मुलाक़ातें होने के बावजूद अपनेपन ने कब जगह बना ली पता ही नहीं चला। वास्तव में, आपका शकेसीयत ही ऐसा हो रहा है। टीवी के स्क्रीन पर भी मर्यादा में रहकर कैसे सवाल पूछे जाते हैं। पूर्वानुमान को बिना बेइज़्ज़त किया और खुद पर किसी को हावी न होने देने के आपके हुनर ​​ने हिंदुस्तान के करोड़ों लोगों का अज़ीज़ बना दिया।

जाहिर है कि देश के घर-घर तक पहुँचने बनाने वाले शानदार एंकर के निधन से पूरा देश स्तब्ध रहा है। सोशल मीडिया पर श्रद्धानलियों का सिलसिला चल पड़ा। आम लोगों की छोड़िए, देश का हर महत्वपूर्ण व्यक्ति मर्माहत है और शोक संवेदना प्रकट कर रहा है। लेकिन सरदाना के निधन और उसी शोक संवेदनाओं के बीच से एक सवाल भी उठता है जिस पर गौर करने की जरूरत हर उस खास व्यक्ति को है जो आज एक युवा और काबिल पत्रकार के निधन पर शोक में डूबे हुए हैं।

रोहित सरदाना ने देश से जुड़े हर महत्वपूर्ण सवाल पर दंगल किया और उन्हीं रोहित के कोरोना से निधन के बाद एक सवाल मैं उठा रहा हूं। सवाल ये कि कोरोना महामारी के इस भयानक दौर रोहित सरदाना के साथ ही हमने कई युवा, अनुभवी और वरिष्ठ पत्रकारों को खो दिया है। ऐसे तमाम पत्रकारों के कोरोना की वजह से कालकलवित हो जाने की न तो चर्चा हुई और न ही किसी जनप्रतिनिधि की मजाक संवेदना।

प्रश्न ये है कि उसलाइन पर अपने जान को जोखिम में डालकर देश को परिचितुक करने वाला पत्रकार, सरकार से लेकर सिस्टम तक हाशिए पर क्यों है? आखिर क्या कारण है कि हर महत्वपूर्ण सरकारी कदम और फैसले का प्रसार जनता तक करने वाली वाल व्यवस्था के नजरों में गौण है? आखिरकार क्यों लाइमलाइन को लाइनेतर नहीं रखा गया? क्या सत्ता के शीर्ष पर विराजमान रोहित के दुखद निधन पर केवल इसलिए संवेदनशील हुए क्योंकि वे देश का चेहरा थे और उनका डिबेट घर घर देखा जाता था?

रोहित ने जिस दंगल को सवालों के साथ नंबर पायदान पर पहुंचाया उन्हीं के जाने के बाद सवालों का दंगल उठ खड़ा हुआ है। सीधा सा सवाल की पत्रकारों की पूछ क्या केवल प्रेस कॉन्फ्रेंस और बाइट्स तक ही सीमित है? आखिर क्या कारण है कि पत्रकारों को बिना बिस्तर, ऑक्सीजन और इलाज के दम तोड़ना पड़ा? हर पत्रकार रोहित सरीखा दिलों पर राज करे ये ज़रूरी नहीं, लेकिन अगर वो रोहित नहीं तो वो कुछ नहीं है। ये भाव खतरनाक है और विचारणीय है।

एक बात और कचोट रही है। वह है कि रोहित की मौत के बाद जिस तरह से कुछ ख़ास लोगों ने टिप्पणियाँ की। उनकी बेहद असंवेदनशील और अश्लील टिप्पणियाँ पर जिस तरह से पत्रकारों के एक ख़ास वर्ग की ओढ़ी हुई उदासीनता दिखी, वह बेहद त्रास देने वाली है।

रोहित के निधन के बाद सोकॉल्ड बुद्धिजीवी गैंग का मौन ऐसी बेहूदीकरण पर भी आश्चर्यचकित करने वाला है। लेफ्ट की लालिमा से सने वो मश् कोशिश कर रही है जो अपने अलावा किसी को भी नहीं देखता, वो एक निधन पर निर्लज्जता की सीमाओं को पार करके टिप्पणी कर रहे हैं। रोहित सरदाना के निधन पर ऐसे लेखनी तोड़ी जा रही है मानों संस्कारों की मैय्यत न जाने कब उनके जीवन से निकल गई थी। और इसी तरह मानसिकताओं का समर्थन करने वाले पत्रकार गैंग का मौन रहना और खतरनाक है।

मानवीय दृष्टिकोण से भरी पत्रकारिता के स्वघोषित मसीहाओं को एक आदमी की मौत पर किए गए अपशब्द कठोर और गलत नहीं लगते। छोटी छोटी बातों पर गाल बाजा देने वाले ये पत्रकार मौन हैं। ऐसे में मन पूछता है कि आखिर ये कौन हैं?

आज मन वास्तव व्यथित है, रोहित के यूं असमय जाने से। मन व्यथित है रोहित की पत्नी और दोनों बेटों को तोड़ते दुखों के पहाड़ के गिर जाने से। मन व्यथित है पत्रकारों के हाशिए पर चले जाना से। आज मन वास्तव व्यथित है बौद्धिक पलटन की मानवताता मर जाने से।

भारी दिमाग के साथ रोहित को श्रद्धांजलि और श्रद्धांजलि उस सिस्टम को भी जिसमें जान को जोखिम में डालकर देश की सेवा करने वाले पत्रकारों का कोई मोल नहीं। समाज में एक रोहित को आने में दशकों का इंतजार करना पड़ता है और जो रोहित नहीं बन सकता उनकी विपदा और मृत्यु नगण्य है। आखिर क्यों?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे जुड़े हों। इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है।) ।

HomepageClick Hear

Related Posts

Leave a Comment