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सदियों से मनाया जा रहा रंगों का यह त्योहार, जुड़ी हैं कई धार्मिक मान्यताएं 

by Sneha Shukla

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होली हमारे देश का सबसे प्राचीन त्योहार है। खुशियों के इस त्योहार को लेकर कई धार्मिक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाए जाने वाले इस त्योहार को फाल्गुनी भी कहा जाता है। पहले होली का नाम होलिका या होलाका था। होली को फगुआ, धुलेंडी नाम से भी जाना जाता है। होली के दिन राग और रंग का संगम होता है इसलिए होली के दिन लोग रंग खेलने के साथ नाचते-गाते हैं। यह त्योहार कटुता को मिटाने के लिए भी जाना जाता है। जब लोग एक दूसरे को रंग लगाते हैं तो सभी बैर दूर हो जाते हैं।

मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था, जिसके खुशी में गांव वालों ने होली का वध मनाया था। इसी तरह पूर्णिमा को भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रासलीला रचाई थी और दूसरे दिन रंग खेलने का त्योहार। इसी दिन से नववर्ष की शुरुआत हो जाती है। इसलिए होली पर्व नवसंवत और नववर्ष के आरंभ का प्रतीक है। श्रीमद्भागवत महापुराण में होली के रास का वर्णन किया गया है। महाकवि सूरदास ने बसंत और होली पर 78 पद लिखे हैं। फाल्गुन पूर्णिमा के दिन ऋषि मनु का भी जन्म हुआ था। होली का संबंध भगवान शिव से भी जोड़ा जाता है। होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग भगवान शिव के गणों का वेश धारण करते हैं।

यह त्योहार भक्त प्रहलाद की स्मृति में मनाया जाता है। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को आग से न जलने का वरदान था, उसने भगवान श्री हरि विष्णु के भक्त प्रहलाद को अग्नि में जलाकर मारने की कोशिश की लेकिन होलिका जल गई और प्रहलाद बच गए, तभी से गली के त्योहार मनाने की प्रथा चली आ रही है। । होलिका सींग के समय अधपके अन्न के रूप में गेहूं की बालियों को पकाकर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। यह वैदिक काल का एक विधान था जिसमें यज्ञ में आधा पके हुए अन्न को हवन की अग्नि में पकाकर प्रसाद के रूप में लिया गया था। इसी विधान को आज भी होलिका दहन में खेलया जाता है। होलिका दहन के बाद होलिका की आग की राख को माथे पर विभेद के तौर पर लगाया जाता है।

इस ग्राफ़ में दी गई धार्मिक धार्मिक आस्थाओं और लौकिक मान्यताओं पर आधारित हैं, जिन्हें केवल सामान्य जनरुचि को ध्यान में रखकर प्रस्तुत किया गया है।



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