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नई दिल्ली: कोलकाता भले ही बंगालियों के शहर के रूप में प्रसिद्ध हो लेकिन यहां मारवाड़ियों की भी खासी तादाद है और कुछ सीटों पर वे निर्णायक भूमिका में हैं। उत्तर कोलकाता की चार विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां हिंदीभाषी बिहारियों और मारवाड़ी बहुतायत में हैं और कह सकते हैं कि यहां अब धीरे-धीरे हिंदुत्व की लहर चल रही है। जोड़ासांको, पोस्ता-बड़ाबाजार, मनिकताला और श्यामपुकुर जैसे विधानसभा क्षेत्रों में पिछले कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में हनुमान मंदिर बने हैं, लिहाजा यहां वोटों के ध्रुवीकरण की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।
ममता बनर्जी के ‘बंगालियाना’ कार्ड के जवाब में बीजेपी ने जातियों को हाशिये पर अब पूरा ध्यान इस बात पर लगा दिया है कि हिन्दू बंगाली वोट पाने के लिए पूरी ताकत लगाई जाए। वैसे कोलकाता की ज्यादातर सीटों पर हिन्दू बंगालियों की संख्या 50 प्रति से अधिक ही है लेकिन सात सीटें ऐसी हैं जहां उनकी तादाद 30 प्रति या उससे कम है।
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में राज्य की 42 में से 18 सीटें जीतने वाली बीजेपी इस बार भी अपनी पुरानी रणनीति को ही दोहरा रही है। तब बीजेपी को 57 प्रतिशत हिन्दू वोट मिले थे, जबकि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस महज 32 प्रतिशत ही मिली थी। तृणमूल को 22% मिलने की एक बड़ी वजह यह थी कि उसे मुसलमानों के लगभग 70 प्रतिशत वोट मिले थे। लेकिन अब तस्वीर बदली हुई है। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के मैदान में आने से मुस्लिम वोटों का बंटवारा होना तय है और यह स्थिति तृणमूल के लिए यहां की कुछ सीटों पर खासी मुश्किल पैदा कर सकती है।
पश्चिम बंगाल के कारोबार पर मारवाड़ियों का साम्राज्य है और हर चुनाव में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। उनकी कोलकाता में बसने की दास्तान बहुत दिलचस्प है। चाहे व्यापार हो या नहीं और कारण लेकिन हकीकत यह है कि देश के आज़ाद होने से बहुत पहले ही मूल्यांकन के मारवाड़ियों ने इस शहर को अपना आवास बनाया और अपनी एक अलग पहचान बनाई। जिस तरह पश्चिमी भारत में गुजरातियों का दबदबा है, तो यह मानने में कोई गुरेज नहीं हिना होना चाहिए कि पूर्वी भारत में मारवाड़ी साम्राज्य का प्रभाव है।
कोलकाता और आसपास के इलाकों से अपने वर्चस्व की शुरुआत करने वाले मारवाड़ी समुदाय ने धीरे-धीरे पूरे देश में अपनी ऐसी छाप बनाई कि आज व्यापार-जगत के बड़े हिस्से की कमान उसके हाथ में है। व्यापार और मारवाड़ी आज एक-दूसरे के मानो न्यूनतम बन चुके हैं।
अंग्रेजों के आने से पहले ही मारवाड़ियों ने बंगाल को अपना ठिकाना बना लिया था। जब नवाब सिराजुदौला का यहाँ राज था, तब उनके सबसे करीबी माने जाने वाले जगत सेठ मारवाड़ी ही थे। नवाबी हुक़ूमत की सारी अर्थव्यवस्था और लेखा-जोखा रखने का जिम्मा उन्हीं के पास होता था।
वैसे देखा जाए तो प्लासी की जंग के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने कारोबार का चार्टररा बढ़ाना शुरू किया, तो मारवाड़ियों ने साल 1840 के आसपास बड़ी संख्या में कोलकाता आकर बसना शुरु कर दिया। तब वस्तुओं के आगे-एक्सप का कारोबार अंग्रेजों के हाथ में होता था, तो मारवाड़ियों ने अपने डिस्ट्रीब्यूशन यानी वितरण का जिम्मा अपने पास ले लिया। आज भी ब्रिटेन की कई कंपनियों की सप्लाई लाइन का प्रबंधन वे ही करते हैं। अनुमान के आधार पर सट्टेबाजी के जरिये बाजार में कैसे उलटफेर करना है और उससे कैसे पैसे कमाना है, इसमें भी मारवाड़ियों को महारत हासिल है।
बाद के वर्षों में उन्होंने कच्चे जूट के कारोबार में अपना हाथ आजमाने शुरू कर दिया और जावा, सुमरा और बाली जैसे छोटे देशों के व्यापारियों ने कोलकाता आकर इनसे कारोबारी संबंध बनाये। स्वभाव से ही बंगाली व्यापार में दिलचस्पी नहीं रखते, लिहाजा मारवाड़ियों ने इसका भरपूर फायदा उठाया। हालांकि उनकी समृद्ध संस्कृति वाले बंगाली व्यक्ति की किसी मारवाड़ी से कभी अच्छी नहीं पट पाती क्योंकि वे उन्हें माइ माइंडेड यानी पैसों का पीर ही मानते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बंगाल की नई पीढ़ी में भी बदलाव देखने को मिल रहा है। अब उन्होंने कारोबार की तरफ ध्यान देना शुरू कर दिया है।
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