नागपुर: कोरोना काल में शायद केवल ऐसा कोई मरीज कहेगा कि मैं अपनी जिंदगी जी चुका हूं और मेरा बिस्तर उस व्यक्ति को दिया जाए, जिसे इसकी मुझे जरूरत है। ये बात मानवता की एक नई मिसाल कायम करते हुए नागपुर में 85 साल के संघ के स्वयंसेवक नारायण दाभाडकर ने कही। अपने इस निर्णय की कीमत के बारे में उन्होंने अपने जीवन को बताया।
नागपुर के नारायण दाभाडकर की पहचान संघ के स्वयंसेवक की रही है। उन्होंने मोदी नंबर 3 शाखा से की और आगे वह श्रीराम शाखा, पावानूम के स्वयंसेवक रहे। पिछले 5 वर्षों से वे अपनी बेटी आसावरी कोठीवान के घर पर रहते थे। कुछ ही दिन पूर्व उन्हें को विभाजित हुआ था। उनका ऑक्सीजन लेवल कम होने लगा, जिससे सांस लेने में तकलीफ होने लगी। शहर में बिस्तर उपलब्ध नहीं है, लोग बिस्तर और ऑक्सीजन के अभाव में मर रहे हैं। ऐसे में बड़े मशक्क्त के बाद उन्हें महापालिका के इंदिरा गांधी अस्पताल में एक इमरजेंसी बेड मिला।
एअरेंस से नारायणराव को अस्पताल लाया गया। उन्हें एडमिट करने की व्याख्याता पूरी हो रही थी तो उन्होंने देखा कि एक महिला अपने बच्चों के साथ 40 के आसपास उम्र के अपने पति को बिस्तर दिलवाने के लिए बहुत कोशिश कर रही थी। लेकिन बिस्तर उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। नारायणराव ने तुरंत निर्णय लिया। उन्होंने तय किया कि वह जीवन जी चुके हैं और उनका बिस्तर ऐसे किसी शख्स को दिया जाए जिसे इसकी बहुत जरूरत हो।
जिस एबुलेंस से नारायणराव को अस्पताल लाया गया था वही से उन्हें घर वापस ले जाया गया। बिना अस्पताल के जो होना था वही हुआ। दूसरे दिन उन्होंने घर में ही आखिरी सांस ली। नारायणराव का बिस्तर किसको मिला? क्या उस व्यक्ति की जान उस कारण से बच पायी? यह तो नरायणराव भी नहीं जान पाया? नारायणराव तो चले गए, लेकिन उनकी कहानी जिसने सुनी या पढ़ी उनके दिल में नारायणराव घर कर गए।
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