अमर उजाला ब्यूरो, नई दिल्ली
द्वारा प्रकाशित: कुलदीप सिंह
अपडेटेड मैट, 14 अप्रैल 2021 05:46 AM IST
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न्यायपालिका और पुलिस एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों के बीच तालमेल जरूरी है। अदालतों को अपराधों की छानबीन के चरण में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए। अपवाद या अतिशय स्थिति में, जब लगे कि न्याय की हत्या हो रही है तो केवल अदालत को इस तरह का आदेश पारित करना चाहिए।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने मंगलवार को कहा, आमतौर पर, जब जांच जारी रहती है और तथ्य अस्पष्ट होते हैं और हाईकोर्ट के समक्ष पूरे सबूत या सामग्री उपलब्ध नहीं होते हैं, अंतरिम आदेश पारित कर आरोपियों को गिरफ्तार न करने या दंडात्मक कार्रवाई न करने का निर्देश देने से बचना चाहिए।
न्यायालय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा -482 या संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत याचिका दायर कर मुकदमे को रद्द करने की याचिका का निपटारा कर दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि कोर्ट के पास उपलब्ध अतिरिक्त व निहित शक्तियों का इस्तेमाल करने का तरीका नहीं होना चाहिए।
पीठ ने यह फैसला किया कि मैसर्स निहारिका इन्फ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड द्वारा बॉम्बे हाईकोर्ट के एक अंतरिम आदेश के खिलाफ दायर याचिका पर दिया गया है। हाईकोर्ट ने इस मामले में आरोपी को गिरफ्तारी से संरक्षण के अलावा किसी तरह की कठोर कार्रवाई करने पर भी रोक लगा दी।
न्यायालयों को सतर्क रहने की आवश्यकता
पीठ ने कहा, धारा- 482 के तहत शक्ति बहुत व्यापक है, लेकिन इसका उपयोग करने में अदालत को अधिक सटीकता रहने की आवश्यकता है। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा है कि पुलिस के पास वैधानिक अधिकार है और कानून के तहत उसकी शुद्धता है कि वह संज्ञेय अपराध की छानबीन करें।
अदालत को ऐसे किसी छानबीन को लिखने वालों को असफल नहीं करना चाहिए। दुर्लभ मामलों में ही मुकदमे या शिकायत को रद्द कर दिया जाना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा है कि मुकदमे या शिकायत को रद्द करने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट को एफआईआर में लगाए गए आरोपों की सत्यता पर नहीं जाना चाहिए।
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